कविता:थर थर,थर थर तन मन कांपे,नही दीखता हर्ष
कविता
थर थर,थर थर तन मन कांपे,नही दीखता हर्ष।
कांप रहे धरती के प्राणी,सूझे नही विमर्श।
सीमा पै जवान कांपे औ,खेतन बीच किसान।
हमें बताओ साथी कैसे आया है नववर्ष?
न खेतों में फसल पकी न आम में लगे टिकोरा।
सन सन,सन सन ठंड हवा का चलता तेज झकोरा।
फटे पुराने कपड़ों में लिपटा गरीब दुखियारा।
आसमान में छिपे सूर्य का मिल न पाए दर्श।
हमें बताओ साथी कैसे आया है नववर्ष?
घना कुहासा शीत लहर है,पीले होते पात।
नन्हें नन्हें जीव जंतु चीखे फिरते बिललात।
मुरझाया कलियों का साहस,पाँखुरि हुई हताश।
जन मानस की पीड़ा को न मिलता है निष्कर्ष।
हमे बताओ साथी कैसे आया है नववर्ष???
घर सूना आंगन सूना सूने हैं बाग बगीचे।
और भरी ठिठुरन में देखो सूने पड़े गलीचे।
सब कुछ सूना सूना उजड़ा,उजड़ा सा संसार।
एक तरह से लागे हमको यहां अर्श व फर्श।
हमे बताओ साथी कैसे आया है नववर्ष?
कर्मराज शर्मा तुकांत
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