हिंदी पत्रकारिता दिवस 2022

 


हिंदी पत्रकारिता दिवस 2022 

नमस्कार !

 पाठकों का यूथ चौपाल की अनोखी विश्लेषणात्मक चर्चा श्रृंखला -‘इन्द्र एन तिवारी के साथ-मुद्दे की बात’ के हिंदी पत्रकारिता दिवस विशेषांक में। आज भारतीय हिंदी पत्रकारिता की समृद्ध धरोहर का जश्न मनाने और वर्तमान समय में हो रही पत्रकारिता को लेकर चिंतन-मंथन करने की आवश्यकता है क्योंकि ये समय की मांग भी है।


इसी कड़ी में आज मैं धर्मेन्द्र शुक्ला, हिंदी पत्रकारिता के इस सबसे अहम दिवस पर प्रख़्यात स्तम्भकार और पत्रकार श्री इन्द्र नारायण तिवारी जी के साथ चर्चा करूँगा आज की पत्रकारिता से जुड़े अहम मुद्दों पर। 

आइये प्रश्न-उत्तर का ये सिलसिला आरंभ किया जाए।


हिंदी पत्रकारिता दिवस 2022 पर अहम सवाल-जवाब 


प्रश्न १ – २०२२ में भारत में पत्रकारिता कहां से कहां पहुंच चुकी है ?



उत्तर १ – इस साल तीन मई को हमने ही नहीं, पूरी दुनिया ने देखा है कि भारत में पत्रकारिता कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है। मीडिया की आज़ादी ही उसकी गतिशीलता का द्योतक है और इस मामले में हम दुनिया के 150वें पायदान पर खिसके पड़े हैं। मीडिया अपनी विश्वसनियता से परे सरोकारविहीन है। उसकी चर्चा ही बेमानी है।


प्रश्न २ – आज पत्रकारों के लिए सबसे सबसे बड़ी चुनौती क्या है ?


उत्तर २  – मानदेय। जी हाँ, आज पत्रकारों की पहली और सबसे बड़ी ज़रूरत है कि उनको उनके श्रम के अनुरूप पारिश्रमिक मिले, जो कि नहीं मिल रहा। इसी से कई दुश्वारियाँ पैदा होती हैं, जिसमें से एक उसकी विश्वसनियता भी है।


प्रश्न ३ – समाचार मीडिया से महिला पत्रकार ‘विलुप्त’ क्यों होती जा रही है ?


उत्तर ३ – मेरा जो अनुभवजन्य बोध है, उसके मुताबिक मेन स्ट्रीम मीडिया में महिलाओं की संख्या पहले से बहुत बेहतर ही हुयी है। विलुप्ति का सवाल ही नहीं। हाँ, ब्यूरो स्तर पर ज़रूर आपकी बात सच है। परन्तु इसे भी हम विलुप्ति नहीं कह सकते, क्योंकि इस स्तर पर पहले से ही महिलाएँ नदारद रही हैं। इसे ग्राह्य बनाना चाहिए।


प्रश्न ४ – मीडिया या मास कॉम का कोर्स करने वाले युवक पत्रकारिता में जाने से संकोच क्यों करने लगे हैं ?


उत्तर ४ – संकोच नहीं करते, डरते हैं। पहली बात तो उन्हें वाजिब नौकरी ही नहीं मिलती। जो नौकरी का कुछ अनुभव पा लेते हैं, वास्तव में सबसे अधिक डर उनमें व्याप्त होता है। और उनका डर वाजिब है। भारत में तो पत्रकारिता का आज न कोई उद्देश्य है और न ही कोई मेकेनिज़्म। ऐसे में, पत्रकारिता के नाम पर आज जो हम प्राप्त कर रहे है, उसे पत्रकारिता के मानदण्डों पर पहले तो परखने की ज़रूरत है। पत्रकारिता के लिहाज़ से उत्तरी यूरोप के देश अनुकरणीय हैं।


प्रश्न ५ – गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राजेंद्र माथुर के दौर के बाद आज हम किन पत्रकारों के समय में जी रहे हैं ?


उत्तर ५ – आपका ये सवाल बहुत वाजिब और गंभीर है। देखिए, एकाध संपादक हैं, मैं  नाम नहीं लूँगा,वो बहुत बेहतर हैं। विविध अख़बारों में चंद ही हैं! पर हैं, वो प्रवर हैं। लेकिन चूँकि वो बेचारे व्यवस्था की विद्रूपता में पंगु हैं। लिहाजा हम ये नहीं कह पा रहे हैं कि उनके दौर में हैं। कहें भी कैसे, जबकि उनकी प्रतिभा का उरूज समाज ने देखा और पाया ही न हो। इसके बरक्स जिनके नाम लेकर हम ये कह सकते हैं कि उनके दौर की पत्रकारिता में हम हैं, वो सोफ़िस्टों की तरह हैं। तो उनका नाम कैसे ले लें। लिहाज़ा, एक संकेत है कि जो आज एक्टिविज़्म से जुड़ा हो, उसके दौर की पत्रकारिता कहना औसतन उचित होगी, क्योंकि विद्यार्थी माथुर आदिक सब अपने एक्टिविज़्म के कारण ही प्रवर थे।


प्रश्न ६ – आने वाले दशक में हिंदी पत्रकारिता का सूरत–ए–हाल क्या होगा ?


उत्तर ६ – इन दिनों पार्टिसिपेटरी या गुरिल्ला जर्नलिज़्म का बूम देख रहा हूँ। इसका रचनात्मक नियमन और व्यवस्थित होते ही यह हर तरह से बेहतर साबित होगा। आज हिन्दी में सिटिजन जर्नलिज़्म के सहारे अनछुये पहलू मुख्यधारा की ख़बर की शक्ल अख़्तियार कर लेती है और प्रचारण भी विपुल है। ऐसा इससे पहले इतिहास में कभी नहीं हुआ। ऐसे में, हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य सबसे शानदार देख रहा हूँ।

Comments

Popular posts from this blog

गुमशुदा महिला की तलाश

दो दिवसीय सांसद खेल प्रतियोगिता मिल्कीपुर में प्रारंभ

प्राण प्रतिष्ठा पर 11 हजार दीपों से जगमगाएगा कृषि विश्वविद्यालय